'मुसहफ़ी' होता मुसलमान जो मुझ सा काफ़िर
दाना-ए-सुब्हा पिरोता अभी ज़ुन्नार के बीच
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'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
मैं जिन को बात करना ऐ 'मुसहफ़ी' सिखाया
औरों की तरफ़ तू देखता है
आज की शब गर रहेंगे 'मुसहफ़ी' बैरून-ए-दर
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
वो चहचहे न वो तिरी आहंग अंदलीब
इतना जो हम से रहते हो बेगाना मेरी जान
मुद्दत से हूँ मैं सर-ख़ुश-ए-सहबा-ए-शाएरी
आना है यूँ मुहाल तो इक शब ब-ख़्वाब आ