औरों की तरफ़ तो देखता है
ईधर भी तो कर निगाह ज़ालिम
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ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
तरफ़ा आलम है हमारा भी कि हर दम उस से
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
तरह ओले की जो ख़िल्क़त में हम आबी होते
जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
काम क्या है प नहीं चाहती हिम्मत हरगिज़
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा