काम क्या है प नहीं चाहती हिम्मत हरगिज़
ग़ैर के घर से दिया कीजिए रौशन अपना
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मेरे और यार के पर्दा तो नहीं कुछ लेकिन
ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
चले ले के सर पर गुनाहों की गठरी
शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने
गर रहूँ शहर में हो दूद के बाइस ख़फ़क़ाँ
शब में देखी हैं पड़ी पाँव में ज़ंजीरें दो
तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
कैसा ये दिन है जो नहीं लाता है रू-ब-शाम
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत