शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
छेड़ मत हम को भरे बैठे हैं
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देख कर इक जल्वे को तेरे गिर ही पड़ा बे-ख़ुद हो मूसा
पैवस्ता गर्द-ए-दश्त रही गर तह-ए-दरूँ
दिल्ली में अपना था जो कुछ अस्बाब रह गया
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
किस की ख़ातिर को मुक़द्दम रख्खूँ मैं हैरान हूँ
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर
तूर पर अपने किसी दिन भी ख़ुर-ओ-ख़्वाब है याँ
ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
वो आहू-ए-रमीदा मिल जाए तीरा-शब गर
हूँ शैख़ मुसहफ़ी का मैं हैरान-ए-शाएरी