ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
उन्हें फ़र्ज़ हो गया है गिला-ए-हयात करना
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गर रहूँ शहर में हो दूद के बाइस ख़फ़क़ाँ
लिए आदम ने अपने बेटे पाँच
क्यूँ कि कहिए कि अदा-बंदी है
जान जानी है मिरी ऐ बुत-ए-कम-सिन तुझ पर
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
शैख़-उल-हरम मोअज़्ज़िन दोनों चलन के बद हैं
लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
सुख़न में कामरानी कर रहा हूँ
चखी न जिस ने कभी लज़्ज़त-ए-सिनान-ए-निगाह
यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी
बातों में लगाए ही मुझे रखता है ज़ालिम
उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने