लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
जिस तरह छोड़ के हम शहर-ए-अदम निकले हैं
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कब ख़ूँ में भरा दामन-ए-क़ातिल नहीं मालूम
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
उस ने गाली मुझे दी हो के इताब-आलूदा
नाज़ुक है मेरा शीशा-ए-दिल इस क़दर कि बस
जो मुझ आतिश-नफ़्स ने मुँह लगाया उस को ऐ साक़ी
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
इस रंग से अपने घर न जाना
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो