इस रंग से अपने घर न जाना
दामन तिरा ख़ूँ में तर बहुत है
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कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
आदमी से आदमी की जब न हाजत हो रवा
उस के कूचे की तरफ़ था शब जो दंगा आग का
तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही
जी में आती है करूँ उन को मैं इक दिन सीधा
मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
देख कर हम को न पर्दे में तू छुप जाया कर
अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें
उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में