क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
फूल कानों में तो हैं ख़ार-ए-मुग़ीलाँ हाथ में
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तू मेरे सामने बैठा है आह तिस पर भी
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
बर्क़-ए-रुख़्सार-ए-यार फिर चमकी
'मुसहफ़ी' हर घड़ी जाया न करो तुम साहिब
तेरी ही ज़ात से तो है वाबस्ता ये तिलिस्म
आह हमराज़ कौन है अपना
मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
मैं क्यूँकर न रख्खूँ अज़ीज़ अपने दिल को
ज़ुल्मात-ए-शब-ए-हिज्र की आफ़ात है और तू
रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
मिज़्गाँ-ज़दन से कम है ज़मान-ए-नमाज़-ए-इश्क़