'मुसहफ़ी' हर घड़ी जाया न करो तुम साहिब
इक तो आशिक़ हो और उस कूचे में बदनाम भी हो
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या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का
आलम को इक हलाक किया उस ने 'मुसहफ़ी'
परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
मौज-ए-निकहत की सबा देख सवारी तय्यार
तब जानूँ मैं कि दीन-ए-मोहम्मद के हैं हरीफ़
दिल सीने में बेताब है दिलदार किधर है
ज़ेर-ए-नक़ाब आब-गूँ हाए-रे उन की जालियाँ
शहवत उन से कौन सी सादिर हुई जो 'मुसहफ़ी'
जब इस में ख़ूँ रहा न तो ये दिल का आबला