गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
तो ज़ेर-ए-ख़ाक न ये बे-क़रार ठहरेगा
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गर ख़ाक से हमारी पुतला कोई बनावे
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
क्या जानिए किस किस को मैं याँ दी है अज़िय्यत
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही
वारफ़्ता हूँ ऐसा में कि कूचे में बुताँ के
दिल चुराना ये काम है तेरा
होती नहीं है दिल को तसल्ली किसी तरह
गरचे ऐ दिल आशिक़-ए-शैदा है तू
दिलबर की तमन्ना-ए-बर-ओ-दोश में मर जाए
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
शेर क्या जिस में नोक-झोक न हो