होती नहीं है दिल को तसल्ली किसी तरह
जब तक मैं दरमियान का पर्दा उठा न दूँ
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आलम इस कार-ए-सन'अ का है तुर्फ़ा कि याँ
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
नासेहा दूर हो चल मुझ से तू हिज्जे मत कर
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
तेरी ही ज़ात से तो है वाबस्ता ये तिलिस्म
उस बुत को नहीं है डर ख़ुदा से
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
कीजिए ज़ुल्म सज़ा-वार-ए-जफ़ा हम ही हैं
किसी के हाथ तो लगता नहीं है इक अय्यार
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
ऐ दिल-ए-बे-जुरअत इतनी भी न कर बे-जुरअती
बातों में लगाए ही मुझे रखता है ज़ालिम