होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
रह एक है उठ जाए जो शक दैर-ओ-हरम का
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बाम-ए-फ़लक पे गर वो उड़ाता नहीं पतंग
उस गली में जो हम को लाए क़दम
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
इन दिनों शहर से जी सख़्त ब-तंग आया है
तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं
दिल डूब गया टूट गया सब्र का लंगर
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
ओ मियाँ बाँके है कहाँ की चाल
देख उस को इक आह हम ने कर ली
फ़हमीदा है जो तुझ को तो फ़हमीद से निकल
तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को