बाम-ए-फ़लक पे गर वो उड़ाता नहीं पतंग
ख़ुर्शीद ओ माह डोर के फिर किस की गोले हैं
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टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
जितना कि ये दुनिया में हमें ख़्वार रखे है
वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
इस इश्क़ ओ जुनूँ में न गरेबान का डर है
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
हर-चंद बहार ओ बाग़ है ये
सौदा है ये किस ज़ुल्फ़ का इस को जो हमेशा
जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते
ये कू-ए-मय-फ़रोश में रौला हुआ कि रात
अब मुझ को गले लगाओ साहिब
अक़्ल गई है सब की खोई क्या ये ख़ल्क़ दिवानी है