बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से
क्या जानिए कहेगा वाँ जा के नामा-बर क्या
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पढ़ न ऐ हम-नशीं विसाल का शेर
उश्शाक़ का कुछ मैं ने आलम ही नया देखा
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
ये दिल वो शीशा है झमके है वो परी जिस में
ब'अद-ए-मुर्दन की भी तदबीर किए जाता हूँ
सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो
उस ने कर वसमा जो फ़ुंदुक़ पे जमाई मेहंदी
ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
अश्क से मेरे बचे हम-साया क्यूँ-कर घर समेत
अपना तो तूल-ए-उम्र से घबरा गया है जी
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही