जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
'मुसहफ़ी' क़ाफ़िले उस राह से कम निकले हैं
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दिल दुखा ही करे है सीने में
क़ैस मिले तो उस से पूछूँ क्या तिरे जी में आई दिवाने
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
यूँ चलते हैं लोग राह ज़ालिम
हर-चंद कि हो मरीज़-ए-मोहतात
है माह कि आफ़्ताब क्या है
दारुश्शफ़ा-ए-इश्क़ में ले जा के हम को इश्क़
गो अब हज़ार शक्ल से जल्वा करे कोई
शैख़ काबे को तू जा जाऊँ मैं बुत-ख़ाने को
कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद
कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए
जा जो इक दिन मिल गई पहलू में शोख़ी देखियो