शैख़ काबे को तू जा जाऊँ मैं बुत-ख़ाने को
कि तिरी राह है वो और मिरी राह है ये
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आज ख़ूँ हो के टपक पड़ने के नज़दीक है दिल
लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
मसलख़-ए-इश्क़ में खिंचती है ख़ुश-इक़बाल की खाल
तिरा शौक़-ए-दीदार पैदा हुआ है
पाँव में क़ैस के ज़ंजीर भली लगती है
आह हमराज़ कौन है अपना
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
शब-ए-हिज्राँ थी मैं था और तन्हाई का आलम था
क्या मैं जाता हूँ सनम छुट तिरे दर और कहीं
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
जाते जाते राह में उस ने मुँह से उठाया जूँही पर्दा
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था