लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
और हम चारों तरफ़ फिरते हैं घबराए हुए
Parveen Shakir
Allama Iqbal
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तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
क्या किया उस का किसू ने बाग़ से जाती रही
हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
चखी न जिस ने कभी लज़्ज़त-ए-सिनान-ए-निगाह
हम से वो बे-सबब उलझती है
होती नहीं है दिल को तसल्ली किसी तरह
'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
तिरे कूचे हर बहाने मुझे दिन से रात करना
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
किश्वर-ए-दिल अब मकान-ए-दर्द-ओ-दाग़-ओ-यास है
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ