हम से वो बे-सबब उलझती है
टुक तो समझाओ ज़ुल्फ़-ए-अबतर को
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ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
तेरे कूचे से सफ़र मैं ने किया था जिस दिन
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है
ले चली है जो दिल तो ज़ुल्फ़-ए-दराज़
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
कुछ तो मिलता है मज़ा सा शब-ए-तन्हाई में
पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ
मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं
मुवाफ़क़त हो जो ताले की उस की मज्लिस में