कुछ तो मिलता है मज़ा सा शब-ए-तन्हाई में
पर ये मालूम नहीं किस से हम-आग़ोश हूँ मैं
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किस की ख़ातिर को मुक़द्दम रख्खूँ मैं हैरान हूँ
तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को
रात के रहने का न डर कीजिए
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
ऐ शब हिज्र कहीं तेरी सहर है कि नहीं
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
शैख़ काबे को तू जा जाऊँ मैं बुत-ख़ाने को
दिलबर की तमन्ना-ए-बर-ओ-दोश में मर जाए
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के