ले चली है जो दिल तो ज़ुल्फ़-ए-दराज़
गाँठ में बाँध लीजो कस कर दिल
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क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
खेल जाते हैं जान पर आशिक़
देख कर इक जल्वे को तेरे गिर ही पड़ा बे-ख़ुद हो मूसा
यार हैं चीं-बर-जबीं सब मेहरबाँ कोई नहीं
तेरी क़सम है अपना तो रुक जाए जी वहीं
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे
हाथों से उस के शीशा-ए-दिल चूर है मिरा
आए हो तो ये हिजाब क्या है
तरफ़ा आलम है हमारा भी कि हर दम उस से
'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए