हाथों से उस के शीशा-ए-दिल चूर है मिरा
या-रब किए की अपने सज़ा पाए मोहतसिब
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क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
क्यूँकर न तुझे दौड़ के छाती से लगा लूँ
काँटा हुआ हूँ सूख के याँ तक कि अब सुनार
मूसा ने कोह-ए-तूर पे देखा जो कुछ वही
सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
पाँव में क़ैस के ज़ंजीर भली लगती है
महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही
भूल जावे साहिब-ए-इक़बाल अपनी सर-कशी
ग़ुस्से को जाने दीजे न तेवरी चढ़ाइए