हिन्दोस्ताँ में दौलत ओ हशमत जो कुछ कि थी
काफ़िर फ़िरंगियों ने ब-तदबीर खींच ली
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ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
क्या दख़्ल किसी से मरज़-ए-इश्क़ शिफ़ा हो
यक क़तरा ख़ूँ बग़ल में है दिल मिरी सो इस को
कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
आँखें हैं जोश-ए-अश्क से पनघट
तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
बातों में लगाए ही मुझे रखता है ज़ालिम
शब-ए-हिज्र का माजरा कोएले से
कुफ़्र फैला है यहाँ तक कि ज़माने में कोई
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है