यक क़तरा ख़ूँ बग़ल में है दिल मिरी सो इस को
पलकों से तेरी ख़ातिर क्यूँकर निचोड़ डालूँ
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नसीबों से कोई गर मिल गया है
जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा
कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए
है यहाँ किस को दिमाग़ अंजुमन-आराई का
जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते
आदमी से आदमी की जब न हाजत हो रवा