गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
हसरत से गया फट गुल-ओ-गुलज़ार का सीना
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तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
कुछ शेर-ओ-शायरी से नहीं मुझ को फ़ाएदा
आसमाँ को निशाना करते हैं
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
मियाँ सब्र-आज़माई हो चुकी बस
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
चश्म ने की गौहर-अफ़्शानी सरीह
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
दरिया-ए-आशिक़ी में जो थे घाट घाट साँप
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए