घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब
क्या तुझ को बनानी थी यही रात ज़रा सी
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'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
जानिब-ए-कअबा तू क्यूँ ले गया बुत-ख़ाने से
जिस्म-ए-ख़ाकी को बनाया लाग़री ने ऐन-रूह
ऐ दिल-ए-बे-जुरअत इतनी भी न कर बे-जुरअती
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
बस-कि हों मिल्लत-ओ-मज़हब से जहाँ के आज़ाद
ढे जाने का कुछ घर के मुझे ग़म नहीं इतना
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
आज की शब गर रहेंगे 'मुसहफ़ी' बैरून-ए-दर