कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
उस की गुफ़्तार-ए-बे-ख़तर को देख
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हैं यादगार-ए-आलम-ए-फ़ानी ये दिनों चीज़
काश सोता ही रहूँ मैं कि नहीं चाहता दिल
होती नहीं है दिल को तसल्ली किसी तरह
गर जोश पे टुक आया दरियाव तबीअत का
आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो
जल्वा-गर उस का सरापा है बदन आइने में
कल पतंग उस ने जो बाज़ार से मँगवा भेजा
पैरहन लूटे मज़े तेरी हम-आग़ोशी के
जान जानी है मिरी ऐ बुत-ए-कम-सिन तुझ पर
गर देखिए तो आईना-ए-क़द-नुमा की शक्ल
तब जानूँ मैं कि दीन-ए-मोहम्मद के हैं हरीफ़
शब हम को जो उस की धुन रही है