तब जानूँ मैं कि दीन-ए-मोहम्मद के हैं हरीफ़
जब रोज़-ए-हश्र हो रुख़-ए-अहल-ए-फ़रंग सुर्ख़
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हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ
हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से निकला न ये पा-ए-जुनूँ
काफ़िर मुझे न कहियो ऐ मोमिनान-ए-सादिक़
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
कुछ तो मिलता है मज़ा सा शब-ए-तन्हाई में
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
खावेंगे टाँके ज़ख़्म-ए-सर-ओ-रू पर ऐ तबीब
अक्स से अपने अगर राह नहीं तुम को तो जान
मेरे और यार के पर्दा तो नहीं कुछ लेकिन
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं