हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ
इक सिलसिला बंधा उस ज़ुल्फ़-ए-दोता से देखा
Ahmad Faraz
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इक बिजली की कौंद हम ने देखी
इन दिनों शहर से जी सख़्त ब-तंग आया है
जो मिला उस ने बेवफ़ाई की
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
दिल दुखा ही करे है सीने में
होवे न अज़ाब उस पे कभी जिस के पस-ए-मर्ग
इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे
सहराइयान-ए-पूरब क्या जानते हैं इस को
न आया शाम भी घर फिर के अपने
क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई
तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी