न आया शाम भी घर फिर के अपने
तमाशाई-ए-बाज़ार-ए-मोहब्बत
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हम भी हैं तिरे हुस्न के हैरान इधर देख
गर देखिए तो आईना-ए-क़द-नुमा की शक्ल
नसीम मुज़्तरिब-उल-हाल जाए थे पीछे
अभी आग़ाज़-ए-मोहब्बत है कुछ इस का अंजाम
ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
सच इश्क़ में हैं आशिक़ ओ माशूक़ बराबर
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
हाथों से उस के शीशा-ए-दिल चूर है मिरा
या-रब कभी वो दिन हो कि ख़ल्वत में वो सनम
दौलत-ए-फ़क़्र-ओ-फ़ना से हैं तवंगर हम लोग
घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब