मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
यक-ब-यक मौसम-ए-परवाज़ में मर जाते हैं
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दिल में मुर्ग़ान-ए-चमन के तो गुमाँ और ही है
अब मुझ को गले लगाओ साहिब
हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
इक बिजली की कौंद हम ने देखी
मक़्सूद है आँखों से तिरा देखना प्यारे
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
इस क़दर भी तो मिरी जान न तरसाया कर
पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
देख कर इक जल्वे को तेरे गिर ही पड़ा बे-ख़ुद हो मूसा