अभी आग़ाज़-ए-मोहब्बत है कुछ इस का अंजाम
तुझ को मालूम है ऐ दीदा-ए-नम क्या होगा
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हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार
आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना
उस के कूचे की तरफ़ था शब जो दंगा आग का
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
इन आँखों से आब कुछ न निकला
हम से वो बे-सबब उलझती है
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी
किस वक़्त जुदा मुझ से वो कम्बख़्त हुई थी
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
अपनी तो इस चमन में नित उम्र यूँही गुज़री
बनाया एक काफ़िर के तईं उस दम मैं दो काफ़िर
मौज-ए-निकहत की सबा देख सवारी तय्यार