आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना
याँ नूह की कश्ती को भी तूफ़ान का डर है
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अज़-बस भला लगे है तू मेरे यार मुझ को
तू जो जाता है वहीं नित दौड़ दौड़ ऐ 'मुसहफ़ी'
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
चाहूँगा मैं तुम को जो मुझे चाहोगे तुम भी
तू छोड़ अब तो असीर-ए-क़फ़स को ऐ सय्याद
जिस्म-ए-ख़ाकी को बनाया लाग़री ने ऐन-रूह
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
आस्तीं उस ने जो कुहनी तक चढ़ाई वक़्त-ए-सुब्ह
धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का
गर ये आँसू हैं तो लाख आवेंगे दरिया जोश में