तू छोड़ अब तो असीर-ए-क़फ़स को ऐ सय्याद
कली चटकने लगी मौसम-ए-गुलाब आया
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क्या बैठना क्या उठना क्या बोलना क्या हँसना
कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
दारुश्शफ़ा-ए-इश्क़ में ले जा के हम को इश्क़
जब से मअ'नी-बंदी का चर्चा हुआ ऐ 'मुसहफ़ी'
नाज़ुक है मेरा शीशा-ए-दिल इस क़दर कि बस
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
दैर ओ हरम ब-चशम-ए-हक़ीक़त नहीं जुदा
वो जो आशिक़ हैं अपने हाथों से