अब शीशा-ए-साअत की तरह ख़ुश्की के बाइस
गिर्या की जगह रेत निकलती है गुलू से
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मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
पैरहन लूटे मज़े तेरी हम-आग़ोशी के
तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
कब शब-ए-वस्ल वो आया कि मिरे और उस के
वो आप कर रही है मुदाम उस की जुस्तुजू
कब लग सके जफ़ा को उस की वफ़ा-ए-आलम
फिर आई ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल की लहर पेश-ए-नज़र
साअत-ए-ईसवियाँ है कि मिरा दिल जिस में
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
साबित तू रह जफ़ा पे मैं क़ाएम वफ़ा पे हूँ