साअत-ए-ईसवियाँ है कि मिरा दिल जिस में
ख़ुद-ब-ख़ुद चोट लगी ख़ुद-ब-ख़ुद आवाज़ हुई
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मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है
बीमार दिल जुदा है इधर मैं उधर जुदा
आलम को इक हलाक किया उस ने 'मुसहफ़ी'
नाज़ुक है दिल-ए-यार बहुत चाहिए मुझ को
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
गर अब्र घिरा हुआ खड़ा है
जब इस में ख़ूँ रहा न तो ये दिल का आबला
वहशत है मेरे दिल को तो तदबीर-ए-वस्ल कर
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की