सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
व-लेक ये नहीं मालूम हम किधर को चले
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काँटा हुआ हूँ सूख के याँ तक कि अब सुनार
मरते मरते इसी बुत का मुझे कलमा पढ़ना
खुलता है क़ुफ़्ल-ए-ऐश मिरा इस से 'मुसहफ़ी'
चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
दर तलक जाने की है उस के मनाही हम को
होश उड़ जाएँगे ऐ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ तेरे
औरों की तरफ़ तू देखता है
किश्वर-ए-दिल अब मकान-ए-दर्द-ओ-दाग़-ओ-यास है
छुआ हो अगर मैं ने काकुल को तेरी
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
तौबा तो की है इश्क़ से पर इस का क्या इलाज
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल