साबित तू रह जफ़ा पे मैं क़ाएम वफ़ा पे हूँ
मैं अपनी बान छोड़ूँ न तू अपनी आन छोड़
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एक नाले पे है मआश अपनी
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
माइल-ए-गिर्या मैं याँ तक हूँ कि आज़ा पे मिरे
हम दिल को लिए बर-सर-ए-बाज़ार खड़े हैं
तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम
तब जानूँ मैं कि दीन-ए-मोहम्मद के हैं हरीफ़
दूकान-ए-मय-फ़रोश पे गर आए मोहतसिब
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
काश सोता ही रहूँ मैं कि नहीं चाहता दिल
सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब