माइल-ए-गिर्या मैं याँ तक हूँ कि आज़ा पे मिरे
जिस जगह दाग़ दें वाँ दीदा-ए-तर पैदा हो
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तीरथ समझ उस को वो गर अश्नान को आवे
ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
ऐसी आज़ुर्दगी क्या थी हमें इस कूचे से
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
बीमार दिल जुदा है इधर मैं उधर जुदा
गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर
आँखें हैं जोश-ए-अश्क से पनघट
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
ग़बग़ब से बचा दिल तो ज़ख़ंदान में डूबा
खेल जाते हैं जान पर आशिक़
शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने