मय पीने से वो आरिज़ क्या और हो गए थे
इक नाज़ुकी की उन पर तासी चढ़ी हुई थी
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क्यूँ कि कहिए कि अदा-बंदी है
कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है
तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा
ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
उस्ताद कोई ज़ोर मिला क़ैस को शायद
मज़े में अब तलक बैठा मैं अपने होंठ चाटूँ हूँ
लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
जब दिल का जहाज़ अपना तबाही में पड़े है
तेरी क़सम है अपना तो रुक जाए जी वहीं
जो मिला उस ने बेवफ़ाई की