ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
लोग इतने तिरी मज्लिस में समा सकते हैं
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दिन को है सहरा-नवर्दी से हमें काम ऐ रफ़ीक़
हम न शाना न सबा हैं नहीं खुलता है ये भेद
क्या चमके अब फ़क़त मिरी नाले की शायरी
अव्वल-ए-उम्र में देखा उसे जिस ने ये कहा
हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे
उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया
नित जिन आँखों में रहे था तेरी सूरत का ख़याल
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
गर हम से न हो वो दिल-सिताँ एक
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
औरों की तरफ़ तू देखता है