हम न शाना न सबा हैं नहीं खुलता है ये भेद
ऐंठती जाती है क्यूँ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ हम से
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Mohsin Naqvi
Habib Jalib
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Jaun Eliya
Gulzar
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(259) Peoples Rate This
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
बाग़बाँ काटियो मत मौसम-ए-गुल में उस को
शब-ए-विसाल कब आती है मेरे घर ऐ चर्ख़
लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
ख़्वारियाँ बदनामियाँ रुस्वाइयाँ
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
बस बहुत ज़ब्त-ए-ग़म-ए-इश्क़ किया