दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
पछताए हम इस शाम-ए-ग़रीबाँ से निकल कर
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दर तलक जाने की है उस के मनाही हम को
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
ख़ूब-रूयों की मोहब्बत से करें क्यूँ तौबा
और सरगर्म किया तेरी कशिश ने मुझ को
सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ
किसी के अक़्द में रहती नहीं है लूली दहर
मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना
चाहता हूँ उस को मैं वो चाहता मुझ को नहीं
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
अपनी तो इस चमन में नित उम्र यूँही गुज़री
काम क्या है प नहीं चाहती हिम्मत हरगिज़
कशिश ने इश्क़ की क्या काम कुछ किया थोड़ा