चाहता हूँ उस को मैं वो चाहता मुझ को नहीं
जान अपनी क्यूँकि मैं डालूँ किसी की जान में
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बाज़ार से गुज़रे है वो बे-पर्दा कि उस को
लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
देख कर हम को न पर्दे में तू छुप जाया कर
चले ले के सर पर गुनाहों की गठरी
तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर
इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
दैर ओ हरम ब-चशम-ए-हक़ीक़त नहीं जुदा
एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
गली में उस की हुई हल्क़ याँ तक आसूदा
तरफ़ा आलम है हमारा भी कि हर दम उस से