चाक करता है अभी जामा-ए-उर्यानी को
यार को ख़ुश नहीं आती मिरी रुस्वाई हैफ़
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रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
यूँ चलते हैं लोग राह ज़ालिम
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
हर-चंद बहार ओ बाग़ है ये
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
मिस्र को छोड़ के आई है जो हिंदुस्ताँ में
तू छोड़ अब तो असीर-ए-क़फ़स को ऐ सय्याद
खा लेते हैं ग़ुस्से में तलवार कटारी क्या