बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
हसरत निकल गई दिल-ए-उम्मीद-वार की
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मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे
पाँव में क़ैस के ज़ंजीर भली लगती है
वो चहचहे न वो तिरी आहंग अंदलीब
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
इस क़दर भी तो मिरी जान न तरसाया कर
मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
आँखों को फोड़ा डालूँ या दिल को तोड़ डालूँ
एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
दिल में मुर्ग़ान-ए-चमन के तो गुमाँ और ही है
आलम इस कार-ए-सन'अ का है तुर्फ़ा कि याँ