बस बहुत ज़ब्त-ए-ग़म-ए-इश्क़ किया
गिर्या आग़ाज़ किया चाहिए अब
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ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
बस-कि तेज़ाब से कुछ कम भी न था वो दम-ए-क़त्ल
उम्र-ए-पस-माँदा कुछ दलील सी है
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
बनाया एक काफ़िर के तईं उस दम मैं दो काफ़िर
आह हमराज़ कौन है अपना
देख कर हम को न पर्दे में तू छुप जाया कर
आँखों को फोड़ डालूँ या दिल को तोड़ डालूँ
दिल को ये इज़्तिरार कैसा है