बारा-वफ़ातें बीसवीं झड़ियाँ हैं सौ जगह
ऐ ख़ानमाँ-ख़राब जो मिलना है मिल कहीं
Javed Akhtar
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Gulzar
Wasi Shah
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Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
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ख़ाक-ए-बदन तिरी सब पामाल होगी इक दिन
'मुसहफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
ज़ुल्फ़ अगर दिल को फँसा रखती है
कह दो मजनूँ से करे अपनी सवारी तय्यार
'मुसहफ़ी' फ़ारसी को ताक़ पे रख
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर
पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
होश उड़ जाएँगे ऐ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ तेरे
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे