'मुस्हफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
उस का जो क़ुरआँ है वो इंजील है
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मैं क्यूँकर न रख्खूँ अज़ीज़ अपने दिल को
क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
दूर से मुझ को न मुँह अपना दिखाओ जाओ
मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
सामने आँखों के हर दम तिरी तिमसाल है आज
वो जो आशिक़ हैं अपने हाथों से
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
किबरियाई की अदा तुझ में है
मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़
ले गया काजल चुरा दुज़्द-ए-हिना