'मुसहफ़ी' क्यूँके छुपे उन से मिरा दर्द-ए-निहाँ
यार तो बात के अंदाज़ से पा जाते हैं
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या-रब आबाद होवें घर सब के
किबरियाई की अदा तुझ में है
मज़े में अब तलक बैठा मैं अपने होंठ चाटूँ हूँ
कशिश ने इश्क़ की क्या काम कुछ किया थोड़ा
ले चली है जो दिल तो ज़ुल्फ़-ए-दराज़
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
दिल चुराना ये काम है तेरा
शैख़ काबे को तू जा जाऊँ मैं बुत-ख़ाने को
गर हम से न हो वो दिल-सिताँ एक
मज्लिस में उस की अब तो दरबार सा लगे है
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से