ले गया काजल चुरा दुज़्द-ए-हिना
आप की आँखों की बेदारी है ये
Rahat Indori
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चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
आलम के मुरक़्क़ा को किया सैर मैं लेकिन
दूर से मुझ को न मुँह अपना दिखाओ जाओ
आसिफ़ुद्दौला-ए-मरहूम वो था शुस्ता-मिज़ाज
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
क़ैस मिले तो उस से पूछूँ क्या तिरे जी में आई दिवाने
मादर-ए-दहर उठाती है जो हर दम मिरे नाज़
आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना
कब ख़ूँ में भरा दामन-ए-क़ातिल नहीं मालूम
मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
जब तक ये मोहब्बत में बदनाम नहीं होता
आसमाँ को निशाना करते हैं